Friday, April 2, 2010

मुझे मेरे घर के साथ अकेला छोड़ दो...

मुझे मेरे घर के साथ अकेला छोड़ दो...
क्योंकि यही मेरी पूंजी है॥
मेरे बाबुजी कि निशानी है... मेरी माँ कि सहेली है...

जिन्दगी भर मैंने तुमसे कुछ नहीं माँगा...
सिबा एक घोती और एक बक्त कि रोटी के...
मुझे मत ले जाओ इस घर से सात समंदर दूर...
भले ही खंजर उतार दो मेरे सिने में...
अरे जुडी है यादें मेरे बचपन से बुदापे से...
अरे ये सिर्फ घर नहीं जाननत है... तेरी माँ के साथो से सजी थाली है...

आई थी तेरी माँ डोली पर सबार होकर इसी घर में...
उठी थी उसकी अर्थी तेरे मेरे कंधे से इसी घर से...
चंद शब्द क्या पड़ लिए विदेश जाकर...
अरे तू भूल गया तेरी पढाई में लगा पैसा आया था इसी घर से...
अगर ये घर न होता तो मैं गिरवी क्या रखता...
आज तू खुश है बड़ा बाबु है... मत छीन मुझसे मेरी मौत कि जगह...
क्योंकि ये मुझे प्राणों से प्यारी है...

2 comments:

  1. ....सुन्दर भाव,प्रभावशाली रचना!!!

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