Tuesday, June 8, 2010

राजनीती-पांच में से तीन अंक..

प्रकाश झा जैसे निर्देशकों से जनता बेहद ही उम्मीद लगाये रहती है पर जब उन उम्मीदों पर पानी फिर जाये तो क्या कहेंगे..अपहरण,गंगाजल जैसी जबरजस्त फिल्मे दे चुके प्रकाश झा ने राजनीती के गलियारों से जुडी फिल्म राजनीती जनता दरबार में पेश कि हालाकि फिल्म को अच्छी सुरुआत मिली है वो सिर्फ इसलिए कि सिनेमा घरों तक फिल्म आने से पहले शुर्खिया जो बटेर चुकी थी... फिल्म जिस जिवंत मुद्दे को धियान में रखकर बनाई गई है वो अच्छी सोच है और फिल्म कि कहानी भी विल्कुल सही दोड़ती है... पर फिल्म में कुछ ज्यादा ही ओवर जिसे कहते है वो साफ झलकता है... फिल्म में मनोज बाजपयी के अलावा किसी ने दमदार किरदार नहीं अदा किया...
फिल्म को आज कि महाभारत कहे तो जरा भी अतिस्योगती नहीं होगी... फिल्म में जो कुछ भी दिखाया गया है वो काल्पनिक नहीं बल्कि बास्तव में वेसा होता है... कहानी एक परिवार कि है एक इसे राजनितिक परिवार कि जिसके हर सख्श का मकसद सिर्फ गद्दी हासिल करना होता है... फिर उसके लिए किसी अपने कि हत्या भी क्यों न करनी पड़े... फिल्म कि सुरुआत बाप बेटी के बीच के तकरार से होती है... बाप अपनी पार्टी के लिए जीता है तो बेटी एक कमुनिस्ट के साथ उसकी विचारधारों से मोहित हो कर बाप से दूर हो जाती है पर भारती कमुनिस्ट पर एसी मोहित होती है कि वो अपना शारीर भी उसके सुपूर्त कर देती है... पर जब इसका इह्सास उस कमुनिस्ट को होता है तो वो पश्चाताप कि अग्नि में जल जाता है और बहुत दूर चला जाता है भारती एक बच्चे को जन्म देती है पर उसका भाई जिसका किरदार नाना पाटेकर ने निभाया है वो बदनामी के चलते उसे नन्ही सी जान को दूर छोड़ देता है पर बही बच्चा उसी राजनितिक घराने के एक बर्षो पुराने ड्राईवर के यंहा पलता है जो बड़ा होकर सूरज बनता है जिसका किरदार निभाया है अजय देवगन ने... जो दलित के लिए जीता है... इधर राजनितिक परिवार यानि कि पार्टी के अध्यझ को लकवा मार जाता है... तो कर्रकारी अधय्झ के रूप में भानुप्रताप को गद्दी मिल जाती है पर भानुप्रताप का भतीजा वीरेंद्र प्रताप सिंग जिसका किरदार मनोज बाजपयी ने निभाया है... उसके अन्दर कि ज्वाला भड़क उठती है और यंही से शुरू होता है महाभारत का संग्राम... भानुप्रताप कि गोली मार कर हत्या कर दी जाती है... तो विरेंद के पिता भानुप्रताप के बड़े बेटे प्रथ्विप्रताप को उतरादिकारी बना देते है... बनही पार्टी के अन्दर टिकेट को लेकर उठापटक चलती है... सूरज को विरेंद का सपोर्ट मिलता है भानुप्रताप कि मौत के पहते अपने दादा के जन्म दिन पर भानुप्रताप का छोटा बेटा जो विदेश में पीएचडी करता है हिंदुस्तान आता है... पर पिता कि मौत उसे यंही पर रोक लेती है या यूँ कहे कि राजनीती में वो भी उलझ जाता है... फिर राजनीती के दाव पेंच चलते है... आरोप प्र्तायारोप लगये जाते है... खून खराब होता है... दोनों दल के लोगो को ख़रीदा जाता है... वो सब कुछ होता है जो कुर्सी के लिए किया जा सकता है या यूँ कहे कि इंसान मरियादाये... इंसानियत... रिश्तेदारी... खून के रिश्ते सभी कि भूल कर सिर्फ कुर्सी के लिए जीता है... एक एक कर सब मरे जाते है... पृथ्वी मारा जाता है समर कि प्रेमिका जो विदेश से आती वो राजनीती का शिकार होती है... पृथिवी के मारे जाने के बाद पार्टी के लिए नया मुख्मंत्री का दावेदार कौन हो तभी नाम आता है इंदु का... पृथ्वी के वेवा और समर से मोह्बात करने वाली इंदु चुनाव में कड़ी होती है... पर सबसे बड़ा रोड़ा होता है विरेंद और सूरज जिन्हें मारने के लिया समर रचता हा साजिश... और पहले विरेंद को मरता है और फिर अपने भाई सूरज को जिसके बारे में वो नहीं जनता कि वो उसका ही भाई है... और येन्ही ख़त्म होती है राजनीती इंदु प्रथ्वी प्रताप बन जाती है मुखमत्री... आपको बता दे कि सोनिया गाँधी के रोल से मिलता हुआ चेहरा जरुर केटरीना कैफ उर्फ़ इंदु में दीखता है पर रोल दमदार नजर नहीं आता...
ये तो थी फिल्म कि कहानी... पर फ़िल्म में गाने का न होना और पीछे ka मुजिक भी दमदार नहीं है... आपको बता दे कि फ़िल्म कि कहानी जोरदार है इसके आलावा निर्देशन में कुछ कमिया नजर आई... एसे में इस फिल्म को पांच में से सिर्फ ३ अंक ही मिल सकते है... फिल्म एक बार देखने लायक है...